Sunday, June 18, 2023

Wednesday, May 10, 2023

डा० जीवन शुक्ल

हम दोनों साथ-साथ हैं 
 (उमाकांत मालवीय और जीवन शुक्ल) 
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हम दोनों हम उमर थे, हम नवा थे, हम राह भी थे। उमाकांत मालवीय एजी ऑफिस में थे, मैं सी डी ए (पेंशन) में। उनका ऑफिस मेरे रास्ते में पड़ता था। जब वो ऑफिस के लिए निकलते थे, तो मेरे मोहल्ले की सरहदें छूते हुए जाते थे। मैं भरती भवन, मालवीय नगर में किराए के मकान नम्बर 440 में था। उमाकान्त भी किराये के मकान कल्याणी देवी के पास रहते थे। उनके मकान का नंबर नहीं मालूम।
लोग आश्चर्य कर सकते हैं कि ऐसे भी दोस्त हो सकते हैं, जो एक कोख के न होते हुए भी बहुत बातों में एक कोखी से भी अधिक थे। दिन भर नौकरी चाकरी शाम को जानसन गंज में निर्मल टी स्टॉल पर बदौआ गुरू की महफिल में चायबाजी, गप सड़ाका, इंगलैंड के डा. जानशन के ज़माने के कॉफी हाउस कल्चर की बुद्धजीवी बैठक का आनंद। टी स्टाल क्या था दो बेंचों और टेबुल का वो टी हाउस था जिसमें उस समय के व्हीलर बुकस्टाल पर हॉट स्केल पर बिकने वाली पत्रिकाओं (सजनी, साजन, शेर बच्चा )के प्रकाशक, सम्पादक नरसिंह राम शुक्ल, जिनके यहाँ उस समय के चर्चित नवोदित कलमकार आर्थिक आश्रय पा चुके थे, वे भी अपनी कीर्ति के उतार पर भले ही थे, पर उनकी रहीसत की चर्चा का यह प्रसंग कि उन्होंने मोतीलाल नेहरू की कार खरीदी थी और वो बड़े गर्व से बताते थे कि वो उस पर बैठकर सब्जी खरीदने जाते थे। 
नई कविता के लक्ष्मीकांत वर्मा, भारत के परिशिष्ट संपादक परमानंद शुक्ल, उप संपादक विष्णुकांत 
मालवीय, कभी-कभी बादशाही मंडी में उस समय रहे रामनाथ अवस्थी, हरी जी रेडियो के पंचायत घर के प्राण तथा अवधी के महान कवि पढ़ीस के बेटे युक्तिभद्र दीक्षित, हिंदी साहित्य सम्मेलन के प्रभाकर शास्त्री, बाल साहित्य लेखक प्रेम नारायण गौड़, चर्चित तूलिका कलाकार इस्माइल साहब, कैलाश कल्पित आदि  उमाकांत मालवीय और जीवन शुक्ल से मिलने वाले लोग इकट्ठे होते थे।
साहित्य का टाइम पास मनोरंजन और बदौआ गुरू का उम्र की ऊँचाई निचाई छोड़ आत्मीय व्योहार उस टी हाउस का आकर्षण था। एजी ऑफिस तो कवियों, लेखकों का आश्रय कुंज ही लगता था। वहाँ हिंदी ही नहीं उर्दू के लोग भी अपने परिवारों की रोटी रोज़ी का इंतजाम इज्जत के साथ कर लेते थे। केंद्रीय सरकार के ये दो आफिस, यानी जिसमें मैं काम करता था, और ए जी ऑफिस उस समय ही नहीं आज भी प्रयागराज की शान हैं। मैं शादीशुदा ही नहीं दो बच्चों का पिता था पर उमाकांत अविवाहित थे। उनकी विधवा माँ, एक बड़े भाई की भी आज याद आ गई। उनकी शादी जब कानपुर में हुई उसमें कवियों की बिरादरी का मैं अकेला साथी था।
जिस परिवार में उमाकांत का ब्याह हुआ था, उनमें से एक व्यक्ति मेरे साथ मनीराम बगिया के सी ए वी स्कूल कानपुर के सहपाठी थे। ऐसा उनको बारात में देखकर याद  आया। उन्होंने भी मुझे देखा पर शायद हम दोनों एक दूसरे का नाम भूल चुके थे, इसलिए एक दूसरे को देखा तो जरूर पर बात नहीं की। उस शादी में एक अभिनंदन पत्र छपा था, उसमें उमाकांत मालवीय का वह उपनाम भी छपा था जो शायद उनके बेटे यश ने भी कभी किसी को प्रयोग करते न देखा या सुना हो। वह नाम था "बादल"। लेकिन जब हम मिले थे, तब तक वह बादल बरस कर समय की अरावली पहाड़ियों में विसर्जित हो चुका था।
लोगों को आज ये पढ़कर आश्चर्य होगा कि उस समय हम दोनों को एक साथ कवि गोष्ठियों में देखकर लोग  मुस्कराकर कभी-कभी कह देते थे "निराला पंत की जोड़ी है।"  लेकिन हमारे बीच कभी भी ऐसा मानदंड नहीं जन्मा। मैं तो प्रवासी था, उमाकांत वहीं के थे पर हमारे बीच पारिवारिक अंतरंगता थी। एक दूसरे के प्रति सम्मान था, एक दूसरे की प्रतिभा से ईर्ष्या नहीं थी, बल्कि गहरा आदर था। नई कविता के युग में इलाहाबाद में जब उमाकांत और मेरे गीतों की लोग चर्चा करते थे उस समय मैं कहता था "उमाकांत अच्छा लिखते हैं" और उमाकांत कहते "जीवन से मैंने बहुत कुछ पाया है"। हम दोनों की कुंडली "वंशी तुम धरदो" (1961) तथा "मेंहदी माहउर" (1962) के रूप में सामने है, उसे देखकर समझा जा सकता है।
इलाहाबाद का यह वो युग था जब नई कविता जन्म ले चुकी थी। नई कहानी प्रसव पीड़ा से गुजर रही थीं, नवगीत अस्तित्व में आ चुका था। यानी निराला, पंत, महादेवी के बाद का हिंदी साहित्य अपना आकार ले रहा था। यह दूसरे तारसप्तक का युग था।
निराला के दर्शन की आकांक्षा इलाहाबाद लाई थी। परिवार का मेरे कंधों पर बढ़ता बोझ जबरदस्ती कानपुर फिर वहाँ से कन्नौज ले आया। जब तक अकेला चलकर जा सकता था, वर्ष में एक दो बार उस उमाकांत से मिल आता था, जिसके साथ उस नव काल की पुरवा, पछवा के थपेड़े खाए थे। उन दिनों की गंध बटोरने कभी अग्रवाल धर्मशाला, कभी महेश दादा (पूर्व मुख्य न्यायाधीश, उच्च न्यायालय, इलाहाबाद) के बंगले नर्मदेश्वर उपाध्याय के घर, युक्तिभद्र दीक्षित के निवास पर या लक्ष्मी होटल में रुककर विसर्जित कुंभ के संगम में स्नान कर लेता था।

 परिवार के आर्थिक बोझ से टूटा मन 1992 के बाद सँभला तब तक चिड़ियाँ खेत चुग चुकीं थीं। बीच में हम मानस संगम के मंच पर मिले भी पर न हम एक नाव पर थे, न एक धार पर थे। हाँ एक बहती नदी जरूर हमारे बीच दिखती थी। 
आज यश ने एक पोस्ट उमाकांत के चित्र ओर उनके एक गीत के साथ डाली तो 92 वर्ष की आयु में उमड़े वेग के साथ मैं भी बह निक्ला।
वैसे पद्मकांत मालवीय, डा रामकुमार वर्मा, डा जगदीश गुप्त, लक्ष्मीकांत वर्मा, नर्मदेश्वर उपाध्याय, हरी मालवीय, हरिमोहन मालवीय श्रीनारायण चतुर्वेदी और कमला शंकर सिंह (महान चित्रकार) जिनके यहाँ निराला ने अंतिम साँस ली थी, उनके दर्शन इस विस्मृत अश्वतीर्थ की धरती पर भी हुए। कुछ ने तो घर को आकर पवित्र किया। महेश दादा तो कई बार धर्मधाम में आए।
आज अपनी एक ग़ज़ल का शेर याद आ रहा है-
सभी यहाँ हैं मगर तुम नहीं तो लगता है
दिया है तेल है बाती है रौशनी गुम है।

-जीवन शुक्ल
10-5-23

Monday, May 08, 2023

महावीर प्रसाद द्विवेदी कि पत्र

दौलतपुर [रायबरेली] 
२२-१०-१९२८

प्रिय चतुर्वेदीजी , नमोनम: ।
१९ अक्तूबर की चिट्ठी मिली । उसकी लंबाई को देख करके ही डर गया । यह सोच कर कि मुझे इससे भी लंबा जवाब लिखना पड़ेगा , मैं घबरा सा गया । खैर , जो भोग-भाग्य में बदा है ,उसे भोगना ही पड़ेगा । दीर्घायुर्भूयात्‌ । 
```````````लोकोक्तिकोश वाले खत्रीजी [शायद दामोदर दास ] को यह चिट्ठी दिखाइये और उनसे कहिये कि मैं उनसे , मुर्शिदाबाद वाले नवाबी जगत्सेठों से तथा कारनेगी और राकफेलर से भी अधिक अमीर हूँ । अमीर किसे कहते हैं , शायद वे नहीं जानते , शंकराचार्य जानते हैं , वे कहते हैं कि जो जितना अधिक संतोषशील है ,वह उतना ही अधिक अमीर है और जो जितना तृष्णालु है ,वह उतना ही दरिद्र है। मैं तो दुनिया-भर के अमीरों को ,लक्षाधीशों को ही नहीं ,कोट्यधीशों को भी अपने सामने तिनका-
...निस्पृहस्य तृणं जगत्‌ ... समझता हूँ ।
ये लोग दूसरों के मालमत्ते की मापतोल अपने मानदंड से करते हैं , यह कभी नहीं सोचते कि उनसे पूछें कि तुम्हें किसी चीज की कमी तो नहीं है ? और यदि हो तो उसे दूर करने की कोशिश करें !
१७ बरस की उम्र से मैंने रेलवे मे मुलाजिमत शुरू की थी , मुझे २०० रुपये मिलते थे । १८ बरस तक सरस्वती का काम किया , छोड़ने के वक्त कुल १५० मिलते थे । कभी एक पैसा भी किसी से हराम का नहीं लिया । मेरा रहन-सहन ,घर-द्वार सब आपका देखा हुआ है । कानपुर का कुटीर भी आप देख चुके हैं । 
इस तरह रह कर जो कुछ बचाया , वह खैरात कर दिया ।
कानपुर का पुस्तक-संग्रह नागरी-प्रचारिणी को दे चुका हूँ , अब जो मेरे पास बचा है ,उसे हिन्दू-विश्वविद्यालय को देने के लिये लिखा-पढ़ी कर रहा हूँ ।
यह सब लिख दिया है ,डर यह है कि मेरे मरने के बाद कहीं आप ये बातें छपवाने न दौड़ पड़ें । मैं इसकी जरूरत नहीं समझता ।
आपका 
-महावीर प्रसाद द्विवेदी

Wednesday, August 17, 2022

डा० विश्व दीपक बमोला

डा० विश्व दीपक बमोला 

 

ओमप्रकाश यती


 

ज्ञान चतुर्वेदी

 


कमलेश भट्ट कमल

 

कमलेश भट्ट कमल 

पवन कुमार

 

जगदीश व्योम

 

कमलकिशोर गोयनका

 

शिवजी श्रीवास्तव

 
डा० शिवजी श्रीवास्तव

हरेराम समीप


Sunday, January 03, 2016

पूर्णिमा वर्मन


जन्म :  27 जून 1955 को पीलीभीत में।

शिक्षा : 
संस्कृत साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि, स्वातंत्र्योत्तर संस्कृत साहित्य पर शोध, पत्रकारिता और वेब डिज़ायनिंग में डिप्लोमा।

कार्यक्षेत्र :
पूर्णिमा वर्मन का नाम वेब पर हिंदी की स्थापना करने वालों में अग्रगण्य है। 1996 से निरंतर वेब पर सक्रिय, उनकी जाल पत्रिकाएँ अभिव्यक्ति तथा अनुभूति वर्ष 2000 से अंतर्जाल पर नियमित प्रकाशित होने वाली पहली हिंदी पत्रिकाएँ हैं। इनके द्वारा उन्होंने प्रवासी तथा विदेशी हिंदी लेखकों को एक साझा मंच प्रदान करने का महत्त्वपूर्ण काम किया है। लेखन एवं वेब प्रकाशन के अतिरिक्त वे जलरंग, रंगमंच, संगीत तथा हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय विकास के अनेक कार्यों से जुड़ी हैं।

संप्रति : 
संयुक्त अरब इमारात के शारजाह नगर में साहित्यिक जाल पत्रिकाओं 'अभिव्यक्ति' और 'अनुभूति' के संपादन और कला कर्म में व्यस्त।

पुरस्कार व सम्मान : 
दिल्ली में भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, साहित्य अकादमी तथा अक्षरम के संयुक्त अलंकरण "प्रवासी मीडिया सम्मान", जयजयवंती द्वारा जयजयवंती सम्मान, रायपुर में सृजन गाथा के "हिंदी गौरव सम्मान", विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ, भागलपुर द्वारा मानद विद्यावाचस्पति (पीएच.डी.) की उपाधि तथा केंद्रीय हिंदी संस्थान के पद्मभूषण डॉ. मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार से सम्मानित।

प्रकाशित कृतियाँ : 
कविता संग्रह : पूर्वा, वक्त के साथ एवं चोंच में आकाश
संपादित कहानी संग्रह- वतन से दूर

चिट्ठा : चोंच में आकाश, एक आँगन धूप, नवगीत की पाठशाला, शुक्रवार चौपाल, अभिव्यक्ति अनुभूति।
अन्य भाषाओं में- फुलकारी (पंजाबी में), मेरा पता (डैनिश में), चायखाना (रूसी में)

संपर्क : purnima.varman@gmail.com 
फेसबुक पर- https://www.facebook.com/purnima.varman


Saturday, January 02, 2016

डा० राजेन्द्र गौतम

 कवि, समीक्षक और शिक्षाविद के रूप मे डॉ. राजेन्द्र गौतम एक जाना-पहचाना नाम है। बरगद जलते हैं (1998 ), पंख होते हैं समय के (1987) तथा गीत पर्व आया है (1983) उनके चर्चित नवगीत-संग्रह हैं। हरियाणा साहित्य अकादमी ने उनकी कृतियों-- 'बरगद जलते हैं' तथा 'गीतपर्व आया है' को श्रेष्ठ कविता-पुस्तकों के रूप में पुरस्कृत किया है। नवगीत दशक-3, यात्रा में साथ-साथ तथा नवगीत-अर्धशती आदि सभी प्रतनिधि नवगीत-संग्रहों में इनकी रचनाएँ संकलित हैं। एक आलोचक के रूप में उनकी पहचान का आधार पंत का स्वच्छंदतावादी काव्य (2010), दृष्टिपात (1997), पंत के काव्य में आभिजात्यवादी और स्वच्छंदतावादी तत्त्व (1989) तथा हिंदी नवगीत : उद्भव और विकास (1984) जैसे समीक्षा-ग्रंथ हैं। हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित उनकी ललित गद्य-रचनाओं का संग्रह ‘प्रकृति तुम वंद्य हो’ अपनी अलग पहचान रखता है। उनकी 400 से अधिक रचनाएँ हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं मे प्रकाशित और आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से प्रसारित हुई हैं। 
डॉ. गौतम को ‘पाकिस्तान अकादमी ऑफ लेटर्स’ द्वारा इस्लामाबाद में 10-11 जनवरी 2013 को “लोकतन्त्र और साहित्य” विषय पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन मे व्याख्यान के लिए आमंत्रित किया गया। 'विश्व हिंदी सचिवालय मारीशस' ने भी अपने उद्घाटन-समारोह (12.08.04-22.08.04) में उन्हें साहित्यकार के रूप मे आमंत्रित किया था। उन्होंने अनुवाद एवं तकनीकी शब्दावली के क्षेत्र में भी विशिष्ट कार्य किया है।  
सम्प्रति डॉ. गौतम, दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। अपने 41 वर्षों के दीर्घ अध्यापकीय जीवन में वे छात्रों के बीच अत्यधिक लोकप्रियता अर्जित की है। 

सम्पर्क : बी-226 राजनगर-1, पालम, नई दिल्ली-110077
           दूरभाष: 25362321, मो. 9868140469
           ई-मेल:
rajendragautam99@yahoo.com
rajendragautam99203@gmail.com

Saturday, September 20, 2014

प्रमुख साहित्यकार



पं भवानी प्रसाद तिवारी, श्री भवानी प्रसाद मिश्र,श्री अमृत लाल नागर , श्री नरेंद्र शर्मा ,श्री हरिवंशराय बच्चन ,श्री शिवमंगल सिंह सुमन ,श्री माखन लाल चतुर्वेदी एवं श्री सुमित्रानंदन पंत-