Wednesday, May 10, 2023

डा० जीवन शुक्ल

हम दोनों साथ-साथ हैं 
 (उमाकांत मालवीय और जीवन शुक्ल) 
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हम दोनों हम उमर थे, हम नवा थे, हम राह भी थे। उमाकांत मालवीय एजी ऑफिस में थे, मैं सी डी ए (पेंशन) में। उनका ऑफिस मेरे रास्ते में पड़ता था। जब वो ऑफिस के लिए निकलते थे, तो मेरे मोहल्ले की सरहदें छूते हुए जाते थे। मैं भरती भवन, मालवीय नगर में किराए के मकान नम्बर 440 में था। उमाकान्त भी किराये के मकान कल्याणी देवी के पास रहते थे। उनके मकान का नंबर नहीं मालूम।
लोग आश्चर्य कर सकते हैं कि ऐसे भी दोस्त हो सकते हैं, जो एक कोख के न होते हुए भी बहुत बातों में एक कोखी से भी अधिक थे। दिन भर नौकरी चाकरी शाम को जानसन गंज में निर्मल टी स्टॉल पर बदौआ गुरू की महफिल में चायबाजी, गप सड़ाका, इंगलैंड के डा. जानशन के ज़माने के कॉफी हाउस कल्चर की बुद्धजीवी बैठक का आनंद। टी स्टाल क्या था दो बेंचों और टेबुल का वो टी हाउस था जिसमें उस समय के व्हीलर बुकस्टाल पर हॉट स्केल पर बिकने वाली पत्रिकाओं (सजनी, साजन, शेर बच्चा )के प्रकाशक, सम्पादक नरसिंह राम शुक्ल, जिनके यहाँ उस समय के चर्चित नवोदित कलमकार आर्थिक आश्रय पा चुके थे, वे भी अपनी कीर्ति के उतार पर भले ही थे, पर उनकी रहीसत की चर्चा का यह प्रसंग कि उन्होंने मोतीलाल नेहरू की कार खरीदी थी और वो बड़े गर्व से बताते थे कि वो उस पर बैठकर सब्जी खरीदने जाते थे। 
नई कविता के लक्ष्मीकांत वर्मा, भारत के परिशिष्ट संपादक परमानंद शुक्ल, उप संपादक विष्णुकांत 
मालवीय, कभी-कभी बादशाही मंडी में उस समय रहे रामनाथ अवस्थी, हरी जी रेडियो के पंचायत घर के प्राण तथा अवधी के महान कवि पढ़ीस के बेटे युक्तिभद्र दीक्षित, हिंदी साहित्य सम्मेलन के प्रभाकर शास्त्री, बाल साहित्य लेखक प्रेम नारायण गौड़, चर्चित तूलिका कलाकार इस्माइल साहब, कैलाश कल्पित आदि  उमाकांत मालवीय और जीवन शुक्ल से मिलने वाले लोग इकट्ठे होते थे।
साहित्य का टाइम पास मनोरंजन और बदौआ गुरू का उम्र की ऊँचाई निचाई छोड़ आत्मीय व्योहार उस टी हाउस का आकर्षण था। एजी ऑफिस तो कवियों, लेखकों का आश्रय कुंज ही लगता था। वहाँ हिंदी ही नहीं उर्दू के लोग भी अपने परिवारों की रोटी रोज़ी का इंतजाम इज्जत के साथ कर लेते थे। केंद्रीय सरकार के ये दो आफिस, यानी जिसमें मैं काम करता था, और ए जी ऑफिस उस समय ही नहीं आज भी प्रयागराज की शान हैं। मैं शादीशुदा ही नहीं दो बच्चों का पिता था पर उमाकांत अविवाहित थे। उनकी विधवा माँ, एक बड़े भाई की भी आज याद आ गई। उनकी शादी जब कानपुर में हुई उसमें कवियों की बिरादरी का मैं अकेला साथी था।
जिस परिवार में उमाकांत का ब्याह हुआ था, उनमें से एक व्यक्ति मेरे साथ मनीराम बगिया के सी ए वी स्कूल कानपुर के सहपाठी थे। ऐसा उनको बारात में देखकर याद  आया। उन्होंने भी मुझे देखा पर शायद हम दोनों एक दूसरे का नाम भूल चुके थे, इसलिए एक दूसरे को देखा तो जरूर पर बात नहीं की। उस शादी में एक अभिनंदन पत्र छपा था, उसमें उमाकांत मालवीय का वह उपनाम भी छपा था जो शायद उनके बेटे यश ने भी कभी किसी को प्रयोग करते न देखा या सुना हो। वह नाम था "बादल"। लेकिन जब हम मिले थे, तब तक वह बादल बरस कर समय की अरावली पहाड़ियों में विसर्जित हो चुका था।
लोगों को आज ये पढ़कर आश्चर्य होगा कि उस समय हम दोनों को एक साथ कवि गोष्ठियों में देखकर लोग  मुस्कराकर कभी-कभी कह देते थे "निराला पंत की जोड़ी है।"  लेकिन हमारे बीच कभी भी ऐसा मानदंड नहीं जन्मा। मैं तो प्रवासी था, उमाकांत वहीं के थे पर हमारे बीच पारिवारिक अंतरंगता थी। एक दूसरे के प्रति सम्मान था, एक दूसरे की प्रतिभा से ईर्ष्या नहीं थी, बल्कि गहरा आदर था। नई कविता के युग में इलाहाबाद में जब उमाकांत और मेरे गीतों की लोग चर्चा करते थे उस समय मैं कहता था "उमाकांत अच्छा लिखते हैं" और उमाकांत कहते "जीवन से मैंने बहुत कुछ पाया है"। हम दोनों की कुंडली "वंशी तुम धरदो" (1961) तथा "मेंहदी माहउर" (1962) के रूप में सामने है, उसे देखकर समझा जा सकता है।
इलाहाबाद का यह वो युग था जब नई कविता जन्म ले चुकी थी। नई कहानी प्रसव पीड़ा से गुजर रही थीं, नवगीत अस्तित्व में आ चुका था। यानी निराला, पंत, महादेवी के बाद का हिंदी साहित्य अपना आकार ले रहा था। यह दूसरे तारसप्तक का युग था।
निराला के दर्शन की आकांक्षा इलाहाबाद लाई थी। परिवार का मेरे कंधों पर बढ़ता बोझ जबरदस्ती कानपुर फिर वहाँ से कन्नौज ले आया। जब तक अकेला चलकर जा सकता था, वर्ष में एक दो बार उस उमाकांत से मिल आता था, जिसके साथ उस नव काल की पुरवा, पछवा के थपेड़े खाए थे। उन दिनों की गंध बटोरने कभी अग्रवाल धर्मशाला, कभी महेश दादा (पूर्व मुख्य न्यायाधीश, उच्च न्यायालय, इलाहाबाद) के बंगले नर्मदेश्वर उपाध्याय के घर, युक्तिभद्र दीक्षित के निवास पर या लक्ष्मी होटल में रुककर विसर्जित कुंभ के संगम में स्नान कर लेता था।

 परिवार के आर्थिक बोझ से टूटा मन 1992 के बाद सँभला तब तक चिड़ियाँ खेत चुग चुकीं थीं। बीच में हम मानस संगम के मंच पर मिले भी पर न हम एक नाव पर थे, न एक धार पर थे। हाँ एक बहती नदी जरूर हमारे बीच दिखती थी। 
आज यश ने एक पोस्ट उमाकांत के चित्र ओर उनके एक गीत के साथ डाली तो 92 वर्ष की आयु में उमड़े वेग के साथ मैं भी बह निक्ला।
वैसे पद्मकांत मालवीय, डा रामकुमार वर्मा, डा जगदीश गुप्त, लक्ष्मीकांत वर्मा, नर्मदेश्वर उपाध्याय, हरी मालवीय, हरिमोहन मालवीय श्रीनारायण चतुर्वेदी और कमला शंकर सिंह (महान चित्रकार) जिनके यहाँ निराला ने अंतिम साँस ली थी, उनके दर्शन इस विस्मृत अश्वतीर्थ की धरती पर भी हुए। कुछ ने तो घर को आकर पवित्र किया। महेश दादा तो कई बार धर्मधाम में आए।
आज अपनी एक ग़ज़ल का शेर याद आ रहा है-
सभी यहाँ हैं मगर तुम नहीं तो लगता है
दिया है तेल है बाती है रौशनी गुम है।

-जीवन शुक्ल
10-5-23

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