Monday, May 08, 2023

महावीर प्रसाद द्विवेदी कि पत्र

दौलतपुर [रायबरेली] 
२२-१०-१९२८

प्रिय चतुर्वेदीजी , नमोनम: ।
१९ अक्तूबर की चिट्ठी मिली । उसकी लंबाई को देख करके ही डर गया । यह सोच कर कि मुझे इससे भी लंबा जवाब लिखना पड़ेगा , मैं घबरा सा गया । खैर , जो भोग-भाग्य में बदा है ,उसे भोगना ही पड़ेगा । दीर्घायुर्भूयात्‌ । 
```````````लोकोक्तिकोश वाले खत्रीजी [शायद दामोदर दास ] को यह चिट्ठी दिखाइये और उनसे कहिये कि मैं उनसे , मुर्शिदाबाद वाले नवाबी जगत्सेठों से तथा कारनेगी और राकफेलर से भी अधिक अमीर हूँ । अमीर किसे कहते हैं , शायद वे नहीं जानते , शंकराचार्य जानते हैं , वे कहते हैं कि जो जितना अधिक संतोषशील है ,वह उतना ही अधिक अमीर है और जो जितना तृष्णालु है ,वह उतना ही दरिद्र है। मैं तो दुनिया-भर के अमीरों को ,लक्षाधीशों को ही नहीं ,कोट्यधीशों को भी अपने सामने तिनका-
...निस्पृहस्य तृणं जगत्‌ ... समझता हूँ ।
ये लोग दूसरों के मालमत्ते की मापतोल अपने मानदंड से करते हैं , यह कभी नहीं सोचते कि उनसे पूछें कि तुम्हें किसी चीज की कमी तो नहीं है ? और यदि हो तो उसे दूर करने की कोशिश करें !
१७ बरस की उम्र से मैंने रेलवे मे मुलाजिमत शुरू की थी , मुझे २०० रुपये मिलते थे । १८ बरस तक सरस्वती का काम किया , छोड़ने के वक्त कुल १५० मिलते थे । कभी एक पैसा भी किसी से हराम का नहीं लिया । मेरा रहन-सहन ,घर-द्वार सब आपका देखा हुआ है । कानपुर का कुटीर भी आप देख चुके हैं । 
इस तरह रह कर जो कुछ बचाया , वह खैरात कर दिया ।
कानपुर का पुस्तक-संग्रह नागरी-प्रचारिणी को दे चुका हूँ , अब जो मेरे पास बचा है ,उसे हिन्दू-विश्वविद्यालय को देने के लिये लिखा-पढ़ी कर रहा हूँ ।
यह सब लिख दिया है ,डर यह है कि मेरे मरने के बाद कहीं आप ये बातें छपवाने न दौड़ पड़ें । मैं इसकी जरूरत नहीं समझता ।
आपका 
-महावीर प्रसाद द्विवेदी

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